धर्म की सार्थकता और भारतीय संस्कृति – डॉ.(एच सी)विपिन कुमार जैन
जब तक मन, मस्तिष्क और भाव में विशुध्दि नहीं है,तब तक हर प्रकार का धर्म व्यर्थ है। आध्यात्मिकता का तात्पर्य किसी उच्च शक्ति या अलौकिक में विश्वास से भी हो सकता है। जब कभी भी हम धर्म करते है, तो मन में किसी भी प्रकार का किसी भी प्राणी मात्र के लिए द्वेष भाव हमारे धर्म को आचरण में नहीं आने देता, क्योंकि धर्म कहता है,हर प्राणी से चाहे वह आपका शत्रु ही क्यों न हो, उसके प्रति अपने मन में प्रेम और मित्रता एवं क्षमा के भाव रखें,तभी धर्म की सार्थकता है।
संस्कृति भारतीय नागरिकों के एक समूह द्वारा अपनाए जाने वाले रीति-रिवाज, विश्वास, मूल्य और परंपराएँ हैं। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है और यह तय करता है कि हम दुनिया और उसमें अपने स्थान को कैसे देखते हैं। संस्कृति को दो व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: भौतिक संस्कृति और गैर-भौतिक संस्कृति। भौतिक संस्कृति में कपड़े, आश्रय, भोजन और उपकरण जैसी चीजें शामिल हैं। गैर-भौतिक संस्कृति में भाषा, विश्वास, मूल्य और परंपराएँ धर्म भगवान के द्वार पर शीष झुकाना,पूजन पाठ,या ईश्वर की स्तुति मात्र नहीं है, धर्म यदि आचरण में नहीं,तो यह सब व्यर्थ है, आस्तिकता अच्छी बात, किंतु आस्तिक व्यक्ति के आचरण में,दया,करूणा, क्षमा के भाव न होकर, क्रूरता, अहंकार एवं प्रतिशोध के भाव होना, धर्म की सार्थकता को नष्ट कर देते है। वे नास्तिक लोग ऐसे धर्म परायण लोगों से श्रेष्ठ है,जो दया,करूणा और अहंकार से मुक्त सेवा भावी है, क्योंकि वे सच्चे हृदय से मनुष्य धर्म का पालन कर रहे है।विशुद्ध मन, मस्तिष्क एवं भावों से मानव धर्म की सार्थकता ही सच्चा धर्म है, इसके साथ-साथ ईश्वर पर आस्था का होना, श्रेष्ठ धर्मी व्यक्ति की पहचान है।
